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सु॒तेसु॑ते॒ न्यो॑कसे बृ॒हद्बृ॑ह॒त एद॒रिः। इन्द्रा॑य शू॒षम॑र्चति॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sute-sute nyokase bṛhad bṛhata ed ariḥ | indrāya śūṣam arcati ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सु॒तेऽसु॑ते। निऽओ॑कसे। बृ॒हत्। बृ॒ह॒ते। आ। इत्। अ॒रिः। इन्द्रा॑य। शू॒षम्। अ॒र्च॒ति॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:9» मन्त्र:10 | अष्टक:1» अध्याय:1» वर्ग:18» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:3» मन्त्र:10


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

किस प्रयोजन के लिये परमेश्वर की प्रार्थना करनी चाहिये, सो अगले मन्त्र में प्रकाश किया है-

पदार्थान्वयभाषाः - जो (अरिः) सब श्रेष्ठ गुण और उत्तम सुखों को प्राप्त होनेवाला विद्वान् मनुष्य (सुतेसुते) उत्पन्न-उत्पन्न हुए सब पदार्थों में (बृहते) सम्पूर्ण श्रेष्ठ गुणों में महान् सब में व्याप्त (न्योकसे) निश्चित जिसके निवासस्थान हैं, (इत्) उसी (इन्द्राय) परमेश्वर के लिये अपने (बृहत्) सब प्रकार से बढ़े हुए (शूषम्) बल और सुख को (आ) अच्छी प्रकार (अर्चति) समर्पण करता है, वही भाग्यशाली होता है॥१०॥
भावार्थभाषाः - जब शत्रु भी मनुष्य सब में व्यापक मङ्गलमय उपमारहित परमेश्वर के प्रति नम्र होता है, तो जो ईश्वर की आज्ञा और उसकी उपासना में वर्त्तमान मनुष्य हैं, वे ईश्वर के लिये नम्र क्यों न हों? जो ऐसे हैं, वे ही बड़े-बड़े गुणों से महात्मा होकर सब से सत्कार किये जाने के योग्य होते, और वे ही विद्या और चक्रवर्त्ति राज्य के आनन्द को प्राप्त होते हैं। जो कि उनसे विपरीत हैं, वे उस आनन्द को कभी नहीं प्राप्त हो सकते॥१०॥इस सूक्त में इन्द्र शब्द के अर्थ के वर्णन, उत्तम-उत्तम धन आदि की प्राप्ति के अर्थ ईश्वर की प्रार्थना और अपने पुरुषार्थ करने की आज्ञा के प्रतिपादन करने से इस नवमे सूक्त के अर्थ की सङ्गति आठवें सूक्त के अर्थ के साथ मिलती है, ऐसा समझना चाहिये। इस सूक्त का भी अर्थ सायणाचार्य्य आदि आर्य्यावर्त्तवासियों तथा विलसन आदि अङ्गरेज लोगों ने सर्वथा मूल से विरुद्ध वर्णन किया है॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः कस्मै प्रयोजनायेत्युपदिश्यते।

अन्वय:

योऽरिरिदपि मनुष्यः सुतेसुते बृहते न्योकस इन्द्राय स्वकीयं बृहत् शूषमार्चति समर्प्पयति, स भाग्यशाली भवति॥१०॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सुतेसुते) उत्पन्न उत्पन्ने (न्योकसे) निश्चितानि ओकांसि स्थानानि येन तस्मै। ओक इति निवासनामोच्यते। (निरु०३.३) (बृहत्) सर्वथा वृद्धम् (बृहते) सर्वोत्कृष्टगुणैर्महते व्यापकाय (आ) समन्तात् (इत्) अपि (अरिः) ऋच्छति गृह्णात्यन्यायेन सुखानि च यः। अच इः। (उणा०४.१३९) इत्येनन ऋधातोरौणादिक इः प्रत्ययः। (इन्द्राय) परमेश्वराय (शूषम्) बलं सुखं च। शूषमिति बलनामसु पठितम्। (निघं०२.९) सुखनामसु च। (निघं०३.६) (अर्चति) समर्पयति॥१०॥
भावार्थभाषाः - यदिमं प्रतिवस्तुव्यापकं मङ्गलमयमनुपमं परमेश्वरं प्रति कश्चित्कस्यचिच्छत्रुरपि मनुष्यः स्वाभिमानं त्यक्त्वा नम्रो भवति, तर्हि ये तदाज्ञाख्यं धर्मं तदुपासनानुष्ठानं चाचरन्ति त एव महागुणैर्महान्तो भूत्वा सर्वैः पूज्या नम्राः कथं न भवेयुः? य ईश्वरोपासका धार्मिका पुरुषार्थिनः सर्वोपकारका विद्वांसो मनुष्या भवन्ति, त एव विद्यासुखं चक्रवर्त्तिराज्यानन्दं प्राप्नुवन्ति, नातो विपरीता इति॥१०॥।अत्रेन्द्रशब्दार्थवर्णनेनोत्कृष्टधनादिप्राप्त्यर्थमीश्वरप्रार्थनापुरुषार्थकरणाज्ञाप्रतिपादनं चास्त्यत एतस्य नवमसूक्तार्थस्याष्टमसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्। इदमपि सूक्तं सायणाचार्य्यादिभिरार्य्यावर्त्तवासिभिर्यूरोपवासिभिरध्यापकविलसनाख्यादिभिश्च मिथ्यैव व्याख्यातम्॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जेव्हा शत्रूही कधी कधी सर्वव्यापक, मंगलमय, अनुपम परमेश्वरासमोर नम्र होतो तेव्हा ईश्वराच्या आज्ञेत व उपासनेत असलेली माणसे ईश्वरासमोर नम्र का होणार नाहीत? अशी मोठमोठ्या गुणांनी महान बनलेली माणसे पूजनीय व सत्कार करण्यायोग्य असतात व तीच विद्या व चक्रवर्ती राज्याचा आनंद प्राप्त करू शकतात. जी या विपरीत असतात ती असा आनंद भोगू शकत नाहीत. ॥ १० ॥